राजनीतिक सुचिता का पतन: जहां कभी आलोचना का सम्मान था, अब सच बोलने पर सजा मिलती है

सोचिए आज कहां आ पहुंच चुकी है हमारी राजनीतिक सुचिता,,एक दौर प.नेहरू जी का था,जहां आलोचक सत्ता से सम्मान पाते थे,,आज आलोचक तो दूर स्वतंत्र लेखन पर भी सत्ता की लाठी जमकर चलने लगी है,??

राष्ट्रवाद के दौर में पत्रकारिता और साहित्य दोनो तलवार की नोंक पर या सिक्कों की खनक पर काम करने को मजबूर है।।

आज के परिवेश में जो पत्रकार और साहित्यकार सत्ता के हिसाब से काम कर रहा है,उसके लिए धन और सुविधाओं की कमी नहीं है,लेकिन सत्ता से थोड़ी सी प्रतिकूलता भी कई तरीके की परेशानियां खड़ी कर रही है।।

देखिए आजादी के बाद देश के प्रथम प्रधानमंत्री प.जवाहर लाल नेहरू और तब के उभरते कवि रामधारी सिंह दिनकर के बीच कैसा व्यवहार था..??

दिनकर जी जो अपनी स्वतंत्र और कड़ी लेखनी के लिए जाने जाते थे,उन्होंने कई बार तत्कालीन नेहरू सरकार की कड़ी आलोचना अपनी कविताओं और लेखन के माध्यम से किया था।। बावजूद इसके स्व. नेहरू ने उन्हें राज्य सभा में नियुक्ति दिलाई थी।।

नेहरू जी ने 1952 में दिनकर को राज्यसभा के लिए मनोनीत किया था, और वे 1964 तक लगातार तीन बार सदन के सदस्य रहे. 
 
इस बीच भी दिनकर जी ने नेहरू सरकार की गलत नीतियों की खुली आलोचना करना जारी रखा था।

दिनकर ने राज्यसभा में नेहरू सरकार की खुली और स्वस्थ आलोचना की, यहां तक कि भारत-चीन युद्ध के बाद भी. 
1962 की हार के बाद दिनकर ने नेहरू सरकार की आलोचना करते हुए कहा था कि "जब-जब राजनीति लड़खड़ाती है, साहित्य उसे ताकत देता है।"
 
दिनकर ने हमेशा अपनी साहित्यिक स्वतंत्रता बनाए रखी और नेहरू सरकार के साथ अपने संबंधों के बावजूद अपनी राय खुलकर व्यक्त की. 

नेहरू जी और दिनकर के बीच एक जटिल और अनोखा रिश्ता था। दोनो व्यक्तिगत रूप से बहुत करीब थे,लेकिन दिनकर ने हमेशा अपनी राय खुलकर व्यक्त करते थे। आपने बिना किसी भय के सरकार की आलोचना की थी. दिनकर की यह साहित्यिक स्वतंत्रता और स्वतंत्र विचार उन्हें एक अद्वितीय कवि पहचान देते थे। 

1962 में चीन के हाथों भारत की पराजय से देश की जनता तो मर्माहत थी ही, हमारे बुद्धिजीवी और साहित्यकार भी बहुत दुखी थे। सभी चीन के साथ भारत की कमजोर विदेश नीति और अशक्त रक्षा नीति को इस हार के लिए जिम्मेवार ठहरा रहे थे। ऐसे में आग, विरोध, विद्रोह और राष्ट्रीय स्वाभिमान को आवाज देने के लिए मशहूर कवि रामधारी सिंह दिनकर कैसे चुप रह सकते थे! कविवर दिनकर ने चीन की हार के बाद ही *‘परशुराम की प्रतीक्षा’* नाम की काव्य पुस्तक की रचना की। उन्होंने इसमें तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की गलत नीतियों की कविता के माध्यम से आलोचना की। कांग्रेसी शासन के समय देश में व्याप्त भाई-भतीजावाद और भ्रष्टाचार को भी दिनकर जी ने अपनी लेखनी से रेखांकित किया।
पुस्तक की शुरुआत में ही कवि ने वीरों और सैनिकों से प्रश्न तथा उनके उत्तर के अंदाज में लिखा है-

गरदन पर किसका पाप वीर! ढोते हो?

शोणित से तुम किसका कलंक धोते हो?

उनका, जिनमें कारुण्य असीम तरल था,
तारुण्य-ताप था नहीं, न रंच गरल था,
सस्ती सुकीर्ति पा कर जो फूल गए थे,
निर्वीर्य कल्पनाओं में भूल गए थे,

गीता में जो त्रिपिटक-निकाय पढ़ते हैं,

तलवार गला कर जो तकली गढ़ते हैं,
शीतल करते हैं अनल प्रबुद्ध प्रजा का,

शेरों को सिखलाते हैं धर्म अजा का,

इन पंक्तियों मे दिनकर ने नेहरू जी की ओर इशारा करते हुए लिखा है कि जो नेता लोकप्रियता पाकर फूले नहीं समा रहे थे और जो शेरों की तरह आचरण करने वाली जनता को अजा यानि बकरी का आचरण सिखा रहे थे, वैसे ही नेताओं के पाप को हमारे वीर सैनिक ढो रहे हैं।

इस रचना के बाद चीन से हार की पीड़ा से आहत नेहरू जी ने कवि वर रामधारी जी को राष्ट्रकवि के नाम से संबोधित किया था।।

नेहरू पर लिखी इस तल्ख कविता के बाद स्व.दिनकर को अपेक्षा नहीं थी कि उन्हें जवाहरलाल नेहरू से यह सम्मान मिलेगा। यद्यपि राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर पंडित नेहरू के व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित थे. इस बात का जिक्र उन्होंने अपने कई संबोधनों और किताबों में किया है. 1965 में दिनकर जी ने नेहरू जी के व्यक्तित्व पर एक पुस्तक भी लिखी थी- लोकदेव नेहरू (Lokdeo Nehru).

कुछ ऐसा ही कुछ रिश्ता प. नेहरू और राजनीतिक संत स्व.अटल बिहारी बाजपेई जी के बीच था।

राष्ट्रीय और वैश्विक राजनीति पर पकड़ और जोरदार भाषणों ने उन्हें संसद में चर्चित कर दिया था। अटलजी सत्ता की नीतियों के विरोध में प्रभावी भाषण देते थे। 
उस दौरान अटल बिहारी वाजपेयी बलरामपुर सीट (उत्तर प्रदेश) से सांसद बने थे। संसद में अपने शब्दों के जादू से श्रद्धेय अटल जी ने प.नेहरू को कई बार खूब खरी खोटी सुनाई थी।वो हमेशा नेहरू सरकार की नीतियों और निर्देशों को अपने नजरिए से तौलते थे। बावजूद इसके देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने दिल्ली में एक बड़े ब्रिटिश राजनेता से अटल जी की मुलाकात करवाई थी। तब नेहरू जी ने कहा था- इनसे मिलिए। यह युवा एक दिन देश का प्रधानमंत्री बनेगा।
 नेहरू जी ने कहा था- *"ये मेरा विरोध करते रहते हैं,लेकिन इनमें मैं काफी संभावनाएं देखता हूं।"

जबकि नेहरू जी स्वयं अच्छे वक्ता थे और उन्होंने राजनीतिक मतभेदों से परे जाकर अटलजी की भाषण कला को हर बार सराहा था। 

जब 1977 में वाजपेयी विदेश मंत्री बने, तो उन्होंने "प्रधानमंत्री की भविष्यवाणी" करके नेहरू द्वारा किए गए उपकार का बदला चुकाया। वाजपेयी जी ने तब जब इंदिरा गांधी वाली कांग्रेस सरकार के हर उस पहचान को हटाया जा रहा था,तब सुनिश्चित किया कि प.नेहरू की तस्वीर उनके कार्यालय में उसी स्थान पर ही लगे रहे।

आज जब पुनः पिछले 12 सालों से केंद्र में मोदी जी की भाजपा सरकार है। देश भर के ज्यादातर पत्रकार या मीडिया संस्थान को सरकार के इशारे पर उद्योगपतियों ने खरीद लिया है। जो स्वतंत्र है उनका दमन जोरो पर है। कमोबेश यही स्थिति साहित्यकार,कवि या लोकगायकों की जिन्होंने भी सरकार को उसकी जिम्मेदारी का एहसास कराने का प्रयास किया,वो गौरी लंकेश की तरह या तो मार दिए गए या फिर जेल भेजे गए। इतना ही नहीं लोकगायिका नेहा सिंह राठौर के खिलाफ बिना जांच सिर्फ एक शिकायत पर राष्ट्रद्रोह के साथ 11 गंभीर धाराओं में अपराध दर्ज कर लिया जाना,साथ ही 7.50 मिलियन सब्सक्राइबर वाले 4 pm यू ट्यूब न्यूज चैनल को बंद कर देना लोकतंत्र की लिहाज से कितना उचित है इसका निर्णय आपको लेना है। बात यही खत्म नहीं होती, पहलगाम हमले के बाद अपनी प्रतिक्रियाएं देने बुद्धिजीवी महिला जी.मेड्यूसा पर एफ आई आर और रेटिंग बोला पर भी एफ.आई.आर.हमारी गर्त में जाती राजनीतिक सुचिता की पहचान है।। 

नितिन सिन्हा
संपादक
खबर सार

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